Friday, April 17, 2009

लाल गलियारा फिर हुआ लाल........................

१५ वी लोकसभा के लिए संपन्न हुए पहले चरण के मतदान में इस देश के जिन नागरिकों ने अपने मताधिकार का उपयोग किया , वे सभी प्रशंसा के पात्र है। और सही मायने में वे ही इस देश के सच्चे नागरिक है। कोई भी लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब उसमे उस देश के नागरिकों की सहभागिता हो। क्योंकि पहले चरण के चुनाओं में उन लोगों ने भी मतदान किया है जो लोकतंत्र का मतलब तक नही जानते है, जिन्हें पता नही की विकास क्या होता है, जिन्होंने सड़के नही देखी है , लेकिन अपना वोट देकर उन्होंने भारत में अपना विश्वास ब्यक्त किया है। सबसे चिंता का विषय है लाल गलियारा। झारखण्ड,बिहार,छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में चुनाओं को बाधित करने की कोशिश की गई। अभी हाल ही में हमारे प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने भी स्वीकार किया की आज भारत को सबसे ज्यादा खतरा नक्सलियों से है। आज देश की आतंरिक सुरक्षा खतरें में है। नक्सलियों का प्रभाव बढ़ा है और वे ज्यादा ताक़तवर हुए है। इस चुनाव में भी उन्होंने हिंसा की और कई लोगों की जान ली। एक बात जो समझ नही आ रही है की राज्यों की सरकारें खासकर नक्सल प्रभावित राज्यों की, ऐसा कोई कदम क्यों नही उठा रही है जिससे इस पर लगाम लगाई जा सके। केन्द्र की सरकार का लुंजपुंज रवैया भी इसके लिए जिम्मेदार है। इस समस्या को लेकर कई बैठकें हो चुकी है लेकिन अंजाम सिफर ही रहा है। दरअसल समस्या को जड़ से खत्म करने के लिए ये जरूरी है की इसके कारणों को खोजा जाए और उन कारणों को दूर किया जाए। अक्सर देखने में आता है की जो भी जन प्रतिनिधि इन क्षेत्रों से चुनकर संसद या विधान सभाओं में जाते है वे भी बाद में उन लोगों का शोषण करते है। जो सबसे बड़ी दिक्कत है वो हमारी ब्यवस्था में है। इस ब्यवस्था में गरीब ,गरीब हो रहा है और अमीर, अमीर बन रहा है। देखा जाए तो ये समस्या वही है जहाँ पे विकास नही है, जहाँ के लोगों का जीवन नारकीय है, जिनके पास कोई अवसर नही है। उनकी बात सुनने वाला कोई नही है। आज सरकारों का सारा ध्यान शहरों के विकास पे केंद्रित है, ग्रामीण और अविकसित इलाकों के लिए सरकारें कुछ करना ही नही चाहती है। जहा पे असंतोष होगा वहाँ विद्रोह होना तय है। पेट है तो भूख तो लगेगी ही , नही मिलेगा तो लोग छीनेंगे । जब उनकी बात नही सुनी जायेगी तो वे बन्दूक का सहारा लेंगे ही। हालाँकि ये सच है की बन्दूक समस्या का समाधान नही है लेकिन जिनके पास खोने के लिए कुछ न हो वे पाने की कोशिश तो करेंगे ही। आज लगभग १२ राज्य नक्सलवाद से लड़ रहे है। इस चुनाव में भी कई मतदानकर्मी और सुरक्षाकर्मी मारे गए, उड़ीसा में एक उमीदवार की हत्या तक कर दी गई। यदि अब भी सरकार इसके खात्मे का गंभीर प्रयास नही कर पाई तो निश्चित रूप से देश के सामने एक बड़ा खतरा उत्पन्न हो जाएगा। बेहतर होगा की समस्या का समाधान किया जाए अन्यथा ये खत्म होने की अपेक्षा और विकराल हो जायेगी।

गौर फरमाएं.....................

पड़ोसी का बेटा लायक बन गया, डकैती में था, विधायक बन गया। हाँ, पचासों साल से ये वतन आज़ाद है पर वतन ए रहबरों की लूट से बर्बाद है।मुझे बर्बादी का कोई ग़म नहीं, ग़म है ये रहबर अभी नाबाद है।

Wednesday, April 15, 2009

घोषणा पत्र - ख्वाब या हकीकत

अब जबकि लोकसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान कल यानि १६ अप्रैल को होने जा रहा है ऐसे में राजनितिक दलों के चुनावी घोषणा पत्रों का थोड़ा जिक्र कर ही लेते हैं। देश के दो शीर्ष राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस ने अपने-अपने घोषणा पत्रों में खूब लुभावने वादे किए है। कोई गाँव को इन्टरनेट से जोड़ने की बात कर रहा है तो कोई सभी नागरिकों के लिए स्मार्ट कार्ड नामक पहचान पत्र की बात कह रहा है।कोई १०,००० रुपये में लैपटॉप दिला रहा है तो कोई निजी क्षेत्र में आरक्षण और सस्ते में चावल दिलाने की बात कर रहा है। कुल मिलकर हर तरफ़ वादों की धूम मची है। अब वादा पूरा होगा या नही ये तो भविष्य ही तय करेगा हालाँकि इतिहास तो ख़राब ही रहा है आजतक। वैसे भी सभी जानते है की वादे पूरे करने के लिए नही किए जाते है। कुछ पार्टियाँ तो बहुत समझदार है, उंहोने कोई वादा ही नही किया, जो भी करना होगा परिणामों के बाद करेंगे, ये कुछ ब्यवहारिक बात हुई। एक बात जो सबमे है की किसान और कृषि पर किसी का ध्यान नही है। वैसे भी किसी भी दल को सरकार बनाने लायक बहुमत तो मिलने से रहा, ऐसे में घोषणा पत्र का क्या महत्व रह जाता है। अब तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा की खिचडी बनेगी या फिर मिक्स वेज। मेरे ख्याल से इसमे ये लिख देना चाहिए की '' समय और जरुरत के हिसाब से इसमे परिवर्तन किया जा सकता है। '' सच कहा जाए तो ये एक गंभीर विषय है और इस पर सभी को खासकर राजनीतिज्ञों को विचार करना चाहिए । जनता आपको चुनती है और आप जनता को धोखा देते है, ये निश्चित रूप से निंदनीय है। इधर चुनाव आयोग भी अपना सारा हिसाब-किताब चुकता कर रहा है। खोज-खोज के नेताओं के ख़िलाफ़ मुकदमे दर्ज करा रहा है। ये अलग बात है की किसी भी नेता को आजतक ऐसे मामलों में सजा नही मिली है। बच्चे के जब दांत निकलतें है तो वो खूब काटता है ऐसा ही कुछ चुनाव आयोग कर रहा है। आजकल हर न्यूज़ चैनल सरकार बनवाने में लगा है। कोई राजग की बनवा रहा है तो कोई यू पी ऐ की। सब ''खुल्ला खेल फर्रुखाबादी '' खेलने में लगे है। खैर और कुछ नही तो कम से कम पुराने घोषणा पत्रों के ऊपर नया वाला रख दिया जाएगा, जरुरत हुई तो कभी उलट-पुलट लिया जाएगा नही तो आराम से धूल तो अवश्य खायेगा। चलिए कुछ अपने खाने की चिंता कर ले नही तो वादे के चक्कर में कुछ न मिलेगा। किसी शायर ने दुरुस्त ही फ़रमाया है ................
''ये न थी हमारी किस्मत की विसाले यार होता,
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।''

Monday, April 13, 2009

फिर वही सब............. आख़िर कब तक

एक तरफ़ तो हम लोग भारत को २१ वी सदी में ले जाने की बात कर रहे है वही दूसरी तरफ़ हमारे देश के शीर्ष राजनीतिक दल लोकसभा चुनाओं में देश में नकारात्मक माहौल बनाने में लगे हुए है। किसी पार्टी की तरफ़ से कोई भी राजनीतिज्ञ कुछ ऐसा नही बोल रहा है जिसका कुछ सार्थक अर्थ निकाला जा सके। हर पार्टी एक - दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में इस तरह के शब्दों का प्रयोग कर रही है जिससे इस देश की राजनीतिक परिपक्वता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। बी जे पी कांग्रेस को १२५ साल बूढा बता रही है तो कांग्रेस बी जे पी को अरब सागर में फेंकने की बात कह रही है। ये तो कुछ बानगी भर है जो हिंदुस्तान की दो शीर्ष पार्टियां ऐसे मौके पे कर रही जब देश में १५ वी लोकसभा के चुनाव हो रहे है। सपा जैसे दल भला कैसे पीछे रहते तो मुलायम सिंह कंप्यूटर और अंग्रेजी स्कूलों के ही पीछे पड़ गए। सुना है की नेता बनने से पहले वे एक शिक्षक थे , उसके बाद भी ऐसी बात कर रहे है तो फिर अब भगवान ही बचाए। उधर दक्षिण की एक पार्टी लिट्टे के समर्थन में बोल रही है। कुल मिलाकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर बखूबी जारी है। अब दक्षिण से शुरू हुआ सस्ते में चावल देने का प्रचलन छत्तीसगढ़ तक पहुच गया है। चावल २ रुपये प्रति किलो दिया जा रहा है या नही , ये एक विषय हो सकता है। अभी हाल ही में छत्तीसगढ़ से किसानो की आत्महत्या की खबरें आ रही थी। सरकार चावल की बात तो कर रही है लेकिन चावल उगाने वाले किसानो के बारे में बात करने का समय उसके पास नही है। अब तक न जाने कितने किसानो की मौत हो चुकी है और लगातार हो रही है। खेती आज एक घाटे का सौदा बन गया है। गाँव में कृषि के लिए सिंचाई की सुविधा न के बराबर है। बिजली जब शहरों में नही है तो गाँव में क्या होगी। अब वो दिन नही रहे जब मानसून पर आधारित खेती होती थी आख़िर मौसम के मिजाज को हम इंसानों ने बदल जो दिया है। खेती के लिए बीज-खाद और कीटनाशक , इन सबका प्रबंध करना किसानों के लिए खासकर छोटे किसानों के लिए बहुत ही मुश्किल होता है। कई जिलों में कृषि के विकास के लिए कृषि विज्ञानं केन्द्रों की स्थापना की गई थी लेकिन वे भी ब्यवस्था की भेंट चढ़ गए। खेती के छोटे खर्चों के लिए कृषक कर्ज लेते है जो कभी-कभी उनकी मौत का कारण बन जाता है। अभी हाल ही में एक ख़बर ने मेरा दिल दहला दिया , एक गाँव में एक महिला ने पहले अपने तीन छोटे बच्चों को कुए में फ़ेंक दिया और फिर ख़ुद कूदकर मर गई। ये है हमारे देश की तस्वीर जहाँ कुछ लोगों के कुत्ते भी इंसानों से बेहतर भोजन पाते है वही कई लोग भूख की वजह से खुदखुशी करने को मजबूर होते है। आखिरकार भारत के लोग इतने संतोषी है तभी तो वे इंडिया से पीछे रह जा रहे है..... मन तो करता है की सब कुछ बदल दूँ लेकिन फिर ये सोचता हूँ की कही लोग बदलने से ही इनकार न कर दे। लेकिन उम्मीद अभी बाकी है जब तक की हम बाकी है.........